Books

Chhichhorebaji Ka Resolution (Hardcover, Hindi)

by Piyush Pandey

समीक्षाएं

नई विसंगतियों पर पैना व्यंग्य ‘छिछोरेबाजी का रिज़ोल्यूशन’

राणा यशवंत

हमारा आज का दौर तेजी से बदलते वक्त का दौर है। नयी टकराहटों, नयी स्वीकारोक्तियों, नयी संरचनाओं, नए विरुपणों, नई विसंगतियों और नए नौतिक बोध का दौर है। टीवी, कंप्यूटर (अब तो लैपी औऱ टैब है) औऱ मोबाइल की क्रांति - समाज, संबंध, संवेदना औऱ सरोकार को लगातार मथ रही है औऱ इस मंथन में नित नये तत्व-तथ्य उद्घाटित हो रहे हैं। युवा पत्रकार पीयूष पांडे का पहला व्यंग्य संग्रह ‘छिछोरेबाजी का रिज़ोल्यूशन’ हमारे आसपास हो रहे ऐसे उद्घाटनों की सराहनीय पड़ताल है। ‘फेसबुकिया मुहब्बत के दौर में’ व्यंग्य में 27 साल का चाचा इस बात पर चक्कर खा जाता है कि उसका 18 साल का भतीजा सात समंदर पार न्यूजर्सी और वैंकुवर में बैठी छोरियों से नैट-मटक्का कर रहा है। जवान चाचा अपने किशोर भतीजे से चैटिंग की बारीकियां सीखता है औऱ फिर लड़कियों की तलाश में लग जाता है। यह व्यंग्य मौजूदा दौर में सोशल नेटवर्किंग औऱ संवाद के इस नये गलियारे में बनते संबंधों की तरफ इशारा करती है। पीयूष मूलत: पत्रकार हैं इसलिए उनके व्यंग्य के विषयों का सारा विस्तार खबरों की दुनिया में खड़ा दिखता है।

आईडिया मारु हो तो अखबारों में फोटू और चैनलों पर बाइट चलने में दो मिनट नहीं लगते। नेताजी जानते हैं। इच्छामृत्यु मांगनेवाले नेताजी तो पता है कि राष्ट्रपति के पास पहले ही इच्छामृत्यु की कई याचिकायें पेंडिंग हैं। यह प्रसंग व्यंग्य ‘दुकान आइडिए की’ का है , जो खबरों की दुनिया में छाने और उसके जरिए अपनी मार्केटिंग करने के तमाम तरह के तिकड़मों का मकड़जाल सामने रखती है। पीयूष के इस संग्रह में व्यंग्य छोटे-छोटे हैं औऱ कुछ को छोड़कर ज्यादातर में कसाव है। व्यंग्य की विधा काफी चुनौतीपूर्ण होती है। इस मोर्चे पर पीयूष भाषा और विषय के स्तर पर ताजगी लाकर ना सिर्फ अपने प्रयोगधर्मी होने का अहसास कराते हैं बल्कि विधागत चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना भी करते हैं।

जूता खाना बहुत आसान है। इसमें आपको कुछ नहीं करना पड़ता। चार-छह जूते पड़ने के दौरान मैया मैया या अल्लाह अल्लाह कहना है बस। इसके बाद आपकी आंखें बंद हो जाती हैं औऱ शरीर में एक रहस्यमय किस्म की सुस्ती पसर जाती है । कुछ लोग इसे शरीर सुन्न होना भी कहते हैं। फिर, ठोंकनेवाला ठोंकना रहता है औऱ आप पैरों को पेट की तरफ मोड़कर इस तरह गुड़ी मुड़ी हो जाते हैं मानो यही आपके सोने की प्रिय अवस्था हो। व्यंग्य ‘जूता’ का यह संदर्भ हाल में देश दुनिया में नेताओं पर लगातार चल रहे जूतों के दिलचस्प विवरण के सिलसिले में आता है। गंभीर विषयों पर बॉलीवुड कलाकारों के बयानबाजी पर कटाक्ष करते हुए एक व्यंग्य में लेखक लिखता है,”अपना तो साफ मानना है कि खूबसूरत अभिनेत्रियों से पूछे जाने वाले सवालो को पहले सेंसर बोर्ड से पास कराया जाना चाहिए।”

दरअसल, इस व्यंग्य संग्रह के कुल 31 व्यंग्य में मौजूदा समय की घटनायें, संकट, और सवाल बिखरे पड़े हैं। इन सबको जिस बारीकी और जैसे उदाहरणों का छौंक डाल कर पकाया गया है वो साहित्यिक स्वाद को बनाए रखता है।

पाकिस्तान का आर्थिक संकट दूर करने के लिये एबटाबाद में स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी की तर्ज पर स्टैच्यू ऑफ ओसामा लगाने का आइडिया हो, एक चीयरलीडर का अपनी परेशानियों को बताते हुए मंत्री को ख़त लिखने की बात हो, नई पीढी के छोटे से बेटे का फिल्म दिखाने के लिये पापा को अपने पैंतरे में फंसाना हो या फिर न्यूज चैनलों की प्रलय को लेकर हाहाकारी शोज पर मशक्कत-पढ़ने में ये सारी बातें आपको गुदगुदायेंगी जरुर लेकिन इनकी बुनियाद में जो गंभीर चिंता है, वो पीयूष के व्यंग्य की बुनियाद है। ‘छिछोरेबाजी का रिजोल्यूशन’ छोटे छोटे दिलचस्प वाकयों का ऐसा तानाबाना है, जिसमें पत्रकारिता के सवाल और साहित्य का स्वाद काफी संतुलित मिलेगा और इसे ही पीयूष पांडे की सफलता माना जाना चाहिए।

पुस्तक का नाम-छोछेरेबाजी का रिजोल्यूशन(व्यंग्य)
लेखक-पीयूष पांडे
प्रकाशक-राधाकृष्ण प्रकाशन
कीमत-150 रुपए

ये नए व्यंग्य का 'रिजोल्यूशन'
है

विकास मिश्रा

साहित्य की सबसे कठिन व्यंग्य विधा कैसे नए रास्ते पर जा रही है, इसकी मिसाल है पीयूष पांडे का व्यंग्य संग्रह छिछोरेबाजी का रिजोल्यूशन। घिसे पिटे फार्मूलों, शब्दजाल में जकड़े ज्ञान के वमन में लिपटे व्यंग्य से बिल्कुल अलग..। सीधी सरल भाषा में जिंदगी के आसपास से गुजरी चीजों, बातों को कल्पना की चाशनी में डालकर पीयूष पांडे ने एक नए तरह के व्यंग्य रचना की शुरुआत की है। यही वजह है कि उनके व्यंग्य में आज के समाज का प्रतिबिंब मिलता है। फेसबुक, एसएमएस, ट्वीट के युग की झलकियां व्यंग्य को ताजी हवा देती हैं।

छिछोरेबाजी का रिजोल्यूशन में पीयूष पांडे के 31 व्यंग्य लेख हैं। सब एक से बढ़कर एक। व्यंग्य में जबरन चुटकुले नहीं घुसेड़े गए हैं कि आप ठहाका मारने लगें। पीयूष के व्यंग्य की सबसे बड़ी खासियत ये है कि आप पढ़ना शुरू करें, मुस्कान चेहरे पर खिल जाएगी। जब तक पढ़ते रहेंगे, गुदगुदी लगती रहेगी। भाषा बिल्कुल भाव के नीचे रखी है, ताकि रसभंग न हो। नमूना देखिए-

'साल के पहले सात आठ महीनों में ये दो रिजोल्यूशन पूरे नहीं हो पाए तो रक्षाबंधन पर माही की पत्नी से राखी बंधवाएंगे। भइया, जमाना धोनी का है। किसे टीम में रखना है, किसे किस नंबर पर खिलाना है, किस प्रॉडक्ट के लिए जिद करनी है, वो सब जानते हैं। जोरू का भाई बनेंगे तो माही का कुत्ता, माही का स्वीमिंग पूल और माही की सेंचुरी दिखाने वाले मीडिया में अपन भी छा जाएंगे।'

पीयूष पांडे ने कैटरीना, महेंद्र सिंह धोनी, चीयर लीडर, जूता और ऐश्वर्या राय के गर्भवती होने जैसी बातों को व्यंग्य का विषय बनाया है तो इसे बड़े रोचक अंदाज में पेश भी किया है। व्यंग्य लेख गर्भवती खबर की एक बानगी देखिए-

'मुद्दा ऐश्वर्या के मां बनने का नहीं है। मुद्दा ऐश्वर्या के न्यूज चैनलों पर मां बनने का है। शादी के अगले रोज से न्यूज चैनल इस 'रहस्यमयी' खबर को ब्रेक करने में लगे हैं। ऐश्वर्या की कमर को कैमरे की आंख से ताड़ते हुए कुछ खोजी पत्रकारों ने लगातार बताया कि बस वह महान घड़ी आ गई है। इस बीच रावण आई, रोबोट आ गई, लेकिन वह महान घड़ी नहीं आई।'

करप्शन के सागर में गोते लगाने वाले वर्मा जी और उनकी अमीरी देखकर पति के हिस्से की चार रोटियां सेंकने में भी कोताही करने वाली बीवी की दास्तान हो या 21वीं सदी में मजनूं की फजीहत की दास्तान..गुप्ता जी के बेटे पर थ्री इडियट के चढ़े भूत की कहानी हो या फिर मंत्री जी के नाम लिखा चीयर लीडर का खत। फेसबुक पर मुहब्बत के शहीद हो जाने की गाथा हो या फिर जूते पर ललित निबंध..। पीयूष पांडेय की हर व्यंग्य कथा में अलग आनंद रस है। उनका व्यंग्य हथौड़े नहीं मारता, कान के बगल में सुरसुरी छोड़कर गुदगुदाते हुए निकल जाता है। चूंकि पीयूष पांडे ने लंबा वक्त प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में गुजारा है, लिहाजा मीडिया पर लिखे उनके व्यंग्य और भी करारे हैं। छिछोरेबाजी का रिजोल्यूशन बेशक पीयूष पांडे का पहला व्यंग्य संग्रह है, लेकिन ये संग्रह बहुत उम्मीद बंधाता है। भविष्य के व्यंग्य विधा के मुकाम का आईना दिखाता है। जो व्यंग्य के रसिया हैं, उन्हें तो छिछोरेबाजी का रिजोल्यूशन जरूर पढ़नी चाहिए। जो नई उम्र की नई फसल हैं, जिन्हें साहित्य लुभाता है, उन्हें भी ये व्यंग्य संग्रह पढ़ना चाहिए, क्योंकि पीयूष पांडे का ये व्यंग्य संग्रह नई पीढ़ी को नए जमाने और नए तरीके का व्यंग्य लिखने का सलीका भी सिखाएगा।

व्‍यंग्‍य लेखन पर पीयूष पांडे की थर्ड आई का पुस्‍तकीय चमत्‍कार

अविनाश वाचस्पति

पीयूष पांडे का मीडिया और वेबजगत से जुड़े मुद्दों पर सार्थक लेखन करते हुए तकनीक और व्‍यंग्‍य रचना की ओर, कलम का मुड़ना सायास ही है। मीडिया की यह पीयूषी निगाहें व्‍यंग्‍य पर निर्मल बाबा की थर्ड आई की किरपा करती चलती हैं। वेब पर लिखना मजदूरी का लेखन हो सकता है लेकिन व्‍यंग्‍य कभी मजबूरी में लिखा ही नहीं जा सकता, सभी व्‍यंग्‍यकारों की तरह पीयूष भी इसे मानते हैं। भूमिका लेखक चर्चित व्‍यंग्‍यकार आलोक पुराणिक इसकी तस्‍दीक करते हुए कहते हैं कि ‘यह किताब नये बनते व्‍यंग्‍य का आईना है।‘ मीडिया की मदारीगिरी का ढोल बार बार चैनलों में पीटा गया है। जब पीयूष व्‍यंग्‍य लिखने को टेढ़ा काम बताते हैं तो यह लगता है कि वह खुद को इतना सीधा मान रहे हैं कि वे व्‍यंग्‍य लिखने का सीधा काम ही कर सकते हैं। जबकि दूसरा सीधा काम लेखक ने पुस्‍तक का सीधा शीर्षक नामकरण करके किया है।

किशोरावस्‍था में जासूसी उपन्‍यास पढ़ने वाले परिचित होंगे कि एक बार शुरू करके उसे बीच में छोड़ा नहीं जा सकता है। बिल्‍कुल उसी प्रकार की पकड़ बनाती है ‘छिछोरेबाजी का रिजोल्‍यूशन’। एक बार शुरू करने पर आप इसे पूरा पढ़े बिना चैन नहीं पाएंगे और इसके शहद भरे तीखे तेवर से चिपक-चिपक जाएंगे। विसंगतियों के प्रति उकेरे गए तेवर पाठक के मन-मानस को झिझोड़ देते हैं।

इस किताब की पहली व्‍यंग्‍य रचना ‘छिछोरेबाजी का रिजोल्‍यूशन’ पब्लिसिटी और पैसे के गणित पर जूते से हीरो बनाने की कारगर प्रक्रिया का गुणगान करती हुई चौंकाती है कि ‘छिछोरेबाजी करेंगे तो मौका बिग बॉस में मिल सकता है। कइयों ने इसी गुण के बूते बिग बॉस के घर में एंट्री मारी है। ... लेकिन अगले ही पल इस धारणा को ध्‍वस्‍त करती हुई जूते की अंतिम जादुई शक्ति को स्‍वीकार लेती है कि पब्लिसिटी को पैरों में लोटाने और हीरो बनने के लिए ‘किसी देशी बुश की कनपटी पर सीधे दे मारेंगे। ‘फेसबुकिया मोहब्‍बत, मजनूं की मौजूदगी शीर्षक व्‍यंग्‍यों में व्‍यंग्‍यकार का एक नया ही नजरिया विकसित हो उठा है।

पीयूष पांडे के व्‍यंग्‍य प्रत्‍येक विषय की ऐसी कुशलता से चीरा फाड़ी करते हैं कि पाठक तिलमिला जाता है। यह तिलमिलाना कोई सुर मिलाना या सजाना नहीं है। विषय के भीतर तक जाकर उसकी पूरी टोह लेकर आना है। पीयूष को मैं दोनों ही मोर्चों पर सच्‍चा सैनिक पाता हूं, जिनमें कर्नल बनने की संभावनाएं तेजी से विकास पर हैं। उनमें शब्‍दों के सहज सरल प्रस्‍तुतिकरण को लेकर जो भावगम्‍यता है, संघर्ष का जज्‍बा है, वह एक देशभक्‍त सैनिक वाला है। व्‍यंग्‍य भी साहित्‍य के मोर्चे पर एक ऐसी लड़ाई है, जिसे अभी बहुत दूर तक लड़ा जाना है। पूर्व के व्‍यंग्‍य सैनिकों ने इस मामले में खूब तीर मारे हैं। तीरंदाजी का यह जौहर आजकल जोरों से अखबारों के पन्‍नों पर नियमित रूप से लड़ा जा रहा है। जैसे शरद जोशी, हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्‍ल और फिर उनकी जगह पिस्‍टल की गोलियों ने ले ली अब स्थिति पूरी तरह आधुनिक है और तीर, गोलियों से निकलकर व्‍यंग्‍य अब शब्‍दों के मिसाइल युद्ध में बदलने के बाद फेसबुक पर और चैनलों पर भी लड़ा जा रहा है। चाहे इनमें अभी विषदायी तीरों सरीखी बात पूरी तरह नहीं आ पाई है। आज के दौर में प्रत्‍येक फेसबुकिया स्‍वयं को एक सिद्धहस्‍त व्‍यंग्‍यकार समझने के भ्रम में जी रहा है। उस समय में इस रिजोल्‍यूशन का पुस्‍तक के तौर पर आना इंटरनेट से हटकर वाकई एक क्रांतिकारी घटना है। इंटरनेट के युग में जिस प्रकार इस पुस्‍तक को व्‍यंग्‍य के गुणी लेखकों और सुधि पाठकों ने हाथोंहाथ लिया है, वह सचमुच में व्‍यंग्‍य के प्रति आश्‍वस्‍त करता है।

मेरा साफगोई से यह मानना है कि व्‍यंग्‍य वह नहीं, जिसमें बत्‍तीसी नजर आए। व्‍यंग्‍य वह है जिससे बिना अतिरिक्‍त खर्च हुए मानस की बत्‍ती जल जाए, पाठक के दिमाग में एक अनूठी चमक का अहसास विसंगति के नदारद होने तक झिलमिलाता रहे। चाहे मांसपेशियों पर तनिक जोर न पड़े। पड़े भी तो ऐसे कि भीतर ही भीतर पैदा हुई तिश्‍नगी मुस्‍कराहट बनकर फेस पर नजर आए। फेस जितने देखें, सब फेंस बन जाए। चाहे कितनी भयानक सर्दी हो, फेंस के‍ बिना चैन न आए। सच्‍चा व्‍यंग्‍य वही है जो विसंगतियों को धूल धूसरित करने में कामयाब हो जाए। सर्वोत्‍त्‍म व्‍यंग्‍य की यह शर्त तो होनी ही चाहिए कि व्‍यंग्‍य पढ़ते समय 12 दांत ही दिखाई दें, न दिखाई दें तो सबसे बेहतर। व्‍यंग्‍य समझने के लिए अनुभव और आयु के महत्‍व को नकारा नहीं जा सकता है। अब यह अनुभव व्‍यंग्‍य के विषय को लेकर हो, अथवा व्‍यंग्‍यकार के जीवन के अनुभव को लेकर। इसका जायजा व्‍यंग्‍यकार के इस व्‍यंग्‍य-संग्रह की रचनाओं को निच्‍छलता से पढ़कर आसानी से किया जा सकता है।

गरीबी के विभिन्‍न आयामों पर हथौड़े सरीखी जबर्दस्‍त चोट करते हुए ‘बर्गर सभी के लिए बर्गर होता है। वैसा ही मोटा-ताजा स्‍वाद से भरपूर। अनार का रस सभी के लिए अनार का रस होता है। स्‍वादिष्‍ट। कई आइटम और हैं। लेकिन, दुष्‍ट गरीबी सबकी अलग अलग है। वह किसी एक खांचे में फिट नहीं होती।‘ कहकर वे चौंकाने की कोशिश करते हुए नजर आते हैं पर इससे पाठक से पहले गरीबी ही चौंक उठी होगी।

एक व्‍यंग्‍य में वह धांसू आइडिए की दुकान खोलकर बाजारवाद पर कब्‍जा जमाने की कोशिश करते दिखलाई देते हैं लेकिन ‘प्रॉमिस न कीजै !’ में प्रॉमिस तोड़कर व्‍यंग्‍य में पूरी चैनल मीडिया की असलियत को भरपूर तल्‍खी के साथ सोचने के लिए मजबूर कर देते हैं। चैनलों पर आने वाली खबर में ‘गर्भवती खबर’ शीर्षक व्‍यंग्‍य उनके व्‍यंग्‍य को कम, लेकिन विचारों की ऊर्जा को अवश्‍य गर्भवती कर गया है। फिर इधर उधर नजर डालते हुए वह स्‍वीकार ही लेते हैं ‘ माई बाप मैं ही गधा हूं’ लेकिन बाद में बेहद निराश होकर स्‍वीकारते हैं कि ‘ यहां अब गधा होना भी संभव नहीं है’। मानो कि व्‍यंग्‍यकार की पूरी कायनात ही लूट ली गई हो। वैसे भी मेरा मानना है कि जो गधा होना चाहे उसे आज के आधुनिक तकनीक के युग में व्‍यंग्‍यकार हो जाना चाहिए। जिसे देखकर गधा भी ईर्ष्‍या से जल-भुन जाएगा और पाठक खिलखिला पड़ेंगे। जबकि मैं पहले ही कह चुका हूं कि व्‍यंग्‍य के लिए दांत दिखाना अनिवार्य नहीं है। व्‍यंग्‍य वह मीठी खीर है जो मीठेपन का आस्‍वादन तो कराती है लेकिन साथ ही यह बतलाना भी नहीं भूलती है कि मीठी खीर में सिर्फ दूध, चीनी, चावल ही नहीं, इन मंहगी चीजों के साथ पॉकेट को पूरी तरह सुखाने वाली सूखे मेवों की कीमतें भी खीर में जरूर उत्‍पात मचा रही हैं। लेकिन यह ऊधम आभासी दुनिया की तरह दिखलाई नहीं देता और नेपथ्‍य से ही हल्‍ला-गुल्‍ला मचाता रहता है।

पिछले दिनों एकाएक कुछ राष्‍ट्रीय पत्र प‍त्रिकाओं में पीयूष पांडे के व्‍यंग्‍य पढ़े तो लगा कि यह पीयूष पांडे कोई और ही हैं लेकिन जब फोन मिलाया तो पाया कि सोशल मीडिया और सोशल व्‍यंग्‍य लेखन एक ही कलम से निकल कर बाहर आ रहे हैं। बंधी बधाई लीक से हटकर, अलग से अपनी पगडंडी बना लेना आसान नहीं होता लेकिन पीयूष के लिए लगता है यह इस कदर मुश्किल भी नहीं है। यहीं पर बाद में पक्‍की कोलतार की सड़क का निर्माण होगा जिसमें काला धन, बुराईयों, विसंगतियों का प्रतिबिम्‍ब पीयूष की विशिष्‍ट पहचान कायम करेगा। इन्‍हीं शुभकामनाओं के साथ ‘छिछोरेपन का रिजोल्‍यूशन’ बनाने वाला यह छोरा ‘गांव का गंवई छोरा’ बनकर आधुनिकता और सशक्‍त विरासत की छवि विकसित करेगा, ऐसा विश्‍वास है।

आंखों को इस गर्मी में ठंडक देती त्रुटिरहित छपाई, भाषा के कला-सौष्‍ठव, शब्‍दों का स्थिति के माफिक चयन और प्रकाशक की नयनाभिराम प्रस्‍तुति पुस्‍तक के आवरण पर चित्रित धुंए के छल्‍लों के मानिंद समाज से बुराईयों को गोल करने में सफल होगी।